Thursday 20 March 2008

रे मनवा रंग तन,रंग मन,होली आई रंग गुलाल !


रे मनवा रंग तन रंग मन
होली लाई रंग गुलाल।



प्रीत को काजल आँख में आँजो
कारा कारा मन ने चॉंदी सा मॉंजो
पाताला में गाढ़ी दो मलाल

हेत को मंदर कितरो बड़ो है
अंदर जीके सांवरो खड़ो है
श्रम के आगे हार्यो काल

भूख गरीबी को कीचड़ कारो
कई नी है थारो ने कई नी है म्हारो
झूठा है सब जंजाल

एक ऊचो एक नीचो वात पुराणी
भई भई मिली ने भीत गिराणी
हाथा में लइलो कुदाल

भर पिचकारी नवा नवा रंग की
थाप लगा धिन्नाधिंग मिरदंग की
प्रेम अबीर उछाल

झूठ की होली जली जली जावे
सॉंच ने भई कूण आँच लगावे
सॉंच को है ऊंचो भाल


-नरहरि पटेल

Thursday 13 March 2008

संजय पटेल की मालवी कविता


जमानो नीं बदलेगा

लुगई रोज रिसावे
लाड़ी पाणी नीं बचावे
तेंदूलकर रन नीं बनावे
छोरो घरे नीं आवे
छोरी सासरे नीं जावे
माड़साब सबक नीं करावे
टाबरा भणवा नीं जावे
नेता झूठी कसम खावे
अखबार सॉंच छुपावे
हेडसाब थाणा में खावे
भई-भई रोज कुटावे
बेसुरो नाम कमावे
मालवी बोलता नीं आवे
जमाना के बेसरमी भावे


दा साब !
छाना-माना बेठा रो
बको मती।
तमारा दन ग्या।
किच-किच करोगा
तो छोरा-छोरी इज्जत का
कांकरा करेगा
मुंडो खोलो मती
दाना-बूढ़ा हो
बेठा-बेठा देखता रो
जमानो नीं बदलेगा
तम बदली सको
तो बदलो।

थोड़ो लिख्यो हे
पूरो जाणजो।


(रेखाचित्र:दिलीप चिंचालकर)

Wednesday 5 March 2008

मालवी को समर्थ सम्बल चाहिए



भारत के पश्चिम मध्यप्रदेश में विन्ध्य की तलहटी में जो पठार है उसे कम से कम दो हज़ार वर्षों से मालव (मालवा) कहा जा रहा है। यहॉं के लोग भाषा और पोषाक से कहीं भी पहचान में आते रहे। मौसम की यहॉं सदा कृपा रही है। इसीलिए सदा सुकाल के सुरक्षित क्षेत्र के रूप में इसकी सर्वत्र मान्यता रही है। इस मालवा की बोली मालवी कहलाती है। वह पन्द्रह ज़िलों के प्रायः डेढ़ करोड़ लोगों की भाषा है।

मालवा क्षेत्र की सदा से राजनीतिक पहचान रही है। भौगोलिक समशीतोष्णता का आकर्षण रहा है। धार्मिक उदारता, सामाजिक समभाव, आर्थिक निश्चिन्तता, कलात्मक समृद्धि से सम्पन्न विक्रमादित्य, भर्तृहरि, भोज जैसे महानायकों की यह भूमि रही है जहॉं कालिदास, वराहमिहिर जैसे दैदीप्यमान नक्षत्रों ने साधना की। मालवा के वसुमित्र ने विदेशी ग्रीकों को, विक्रमादित्य ने शकों तथा प्रकाश धर्मा और यशोधर्मा ने हूणों को पराजित कर स्वतंत्रता संग्राम की परंपरा पुरातनकाल से ही स्थापित कर दी थी। मालवा का अपना सर्वज्ञात विक्रम संवत् भी है। यहॉं भीमबेटका जैसे विश्वविख्यात पुरातत्व के स्थान हैं। उज्जयिनी, विदिशा, महेश्वर, धार, मन्दसौर जैसे यहॉं पारम्परिक सांस्कृतिक केन्द्र हैं जहॉं निरन्तर जीवन संस्कार पाता रहा। यहॉं की बोली मालवी की चिरकाल से समृद्धि होती रही जो अब क्रमशः उजागर होती जा रही है। मालवी का लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। लोक नाट्य माच, गीत, कथा वार्ताएँ, पहेलियॉं, कहावतें आदि मालवी की अपनी शक्ति है। इसकी शब्द सम्पदा अत्यंत समृद्ध है। इसकी उच्चारण पद्धति नाट्शास्त्र युग से आज तक वैसी ही है।

उसी समृद्ध मालवा की अपनी मीठी बोली मालवी और मालवा को आज अपनी पहचान की अपेक्षा बनी हुई है। डाक विभाग में मालवा डिवीजन और "मालवा एक्सप्रेस' ट्रेन के अतिरिक्त शासन स्तर पर अब "मालवा' नाम कहीं बचा नहीं है। इन्दौर-उज्जैन-भोपाल की प्रशासकीय इकाई को किसी स्तर पर भी "मालवा' नाम तो दिया ही जा सकता है परन्तु राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना यह सम्भव नहीं है। यही कारण है कि मालवी संस्कृति और साहित्य तथा भाषा के लिए काम करने वाली कोई एक भी मज़बूत संस्था नहीं है।

तुलनात्मक अध्ययन द्वारा मालवी बोली तथा संस्कृति की शक्ति तथा व्यापकता को अभी पूरी तरह प्रकट करने के लिए और प्रयासों की अपेक्षा है। नई हवा में क्षरण होती मालवी लोक संस्कृति की विभिन्न धाराओं की सुरक्षा के लिए त्वरित उपाय करनेहोंगे। इस सबके लिए साहित्य-संस्कृति के समर्पित मर्मज्ञ साधकों के साथ ही राजनीतिक-प्रशासनिक समर्थ सम्बल की भी अत्यंत आवश्यकता है।

डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित