Friday 20 July 2007

विक्रम विश्वविद्यालय में मालवी के लिये रचनात्मक पहल


उज्जैन मालवा का स्पंदित नगर रहा है.महापर्व कुंभ की विराटता,शिप्रा का आसरा,भर्तहरि की भक्ति और महाकालेश्वर का वैभव इस पुरातन पुण्य नगरी को विशिष्ट बनाता है. मालवी के सिलसिले में बात करें तो पद्म-भूषण प.सूर्यनारायण व्यास के अनन्य प्रेम से ही पचास के दशक में मालवी कवि सम्मेलनों की शुरूआत उज्जैन से हुई.डाँ.शिवमंगल सिंह सुमन उज्जैन आकर क्या बसे जैसे पूरा मालवा मालामाल हो गया.विक्रम विश्वविद्यालय ने हमेशा विद्या दान के साथ मालवा और मालवी के प्रसार और विस्तार में महती भूमिका निभाई है. हाल ही में विक्रम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष और मालवीमना डाँ शैलेंद्रकुमार शर्मा ने अथक परिश्रम कर विश्वविद्यालम में मालवी के इतिहास और साहित्य पर अकादमिक कार्य के गहन गंभीर प्रयत्न किये है.मालवी जाजम के विशेष आग्रह पर डाँ . शर्मा ने विक्रम विश्वविद्यालय में किये जा रहे कार्यों का संक्षिप्त विवरण भेजा है .मालवी के विकास हेतु अकादमिक स्तर पर विक्रम विश्वविद्यालय के इस सह्र्दय पहल की मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिये.

संजय पटेल





मालवी लोक संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए व्यापक प्रयासों की दरकार है। इस दिशा में हाल के दशकों में हुए प्रयासों की ओर संकेत दे रहा हूँ।



विक्रम विश्वविद्यालयों से एक साथ कई शोध दिशाओं में मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को लेकर काम हुआ है और आज भी जारी है। मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों - सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी, उमरवाड़ी आदि पर काम हुआ है। साथ ही निमाड़ी भीली और बरेली पर भी काम हुआ है और आज भी जारी है। मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों-सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी, उमरवाड़ी आदि पर काम हुआ है। साथ ही निमाड़ी, भीली और बरेली पर भी काम हुआ है। जहॉं तक मालवी साहित्य की बात है आधुनिक मालवी कविता के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों यथा - आनंदराव दुबे, नरेन्द्रसिंह तोमर, मदनमोहन व्यास, नरहरि पटेल, हरीश निगम, सुल्तान मामा, बालकवि बैरागी, डॉ. शिव चौरसिया, चन्द्रशेखर दुबे आदि पर काम हो चुका है। और भी कई हस्ताक्षरों पर काम जारी है, इनमें मोहन सोनी, श्रीनिवास जोशी, जगन्नाथ विश्व, झलक निगम आदि शामिल है।



मालवी संस्कृति के विविध पक्ष यथा - व्रत, पूर्व, उत्सव के गीत, लोकदेवता साहित्य,श्रंगारिका लोक गीत, हीड़ काव्य, माच परम्परा, संझा पर्व, चित्रावण, मांडणा आदि पर कार्य हो चुका हे। मालवी की विरद बखाण, गाथा साहित्य, लोकोक्ति आदि पर भी कार्य सम्पन्न हो गया है।


हिन्दी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय में विश्वभाषा हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र की शुरुआत हुई है। इसमें मालवी लोक संस्कृति को लेकर विशेष कार्य चल रहा है। इस हेतु मालवी संस्कृति के समेकित रूपांकन एवं अभिलेखन की दिशा में प्रयास जारी है। यहॉं मालवी के शीर्ष रचनाकारों के परिचयात्मक विवरण, कविता एवं चित्रों की दीर्घा संजोयी जा रही है। चित्रावण, सॉंझी, मांडणा सहित मालवा क्षेत्र के कलारूपों को भी इस संग्रहालय में संजोया जाएगा। मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों से सम्बद्ध साहित्य, लेख एवं सूचनाओं का दस्तावेजीकरण भी इस केन्द्र में किया जा रहा है। इस केन्द्र में निमाड़ी, भीली, बरेली, सहरिया जैसी बोलियों के अभिलेखन की दिशा में कार्य जारी है।

मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला अकादमी ने हाल के बरसों में मालवी-निमाड़ी-भीली-बरेली पर एकाग्र महत्वपूर्ण पुस्तके, मोनोग्राफ़ आदि प्रकाशित किए हैं, साथ ही "चौमासा' पत्रिका में भी महत्वपूर्ण सामग्री संजोई जा रही है।

हाल में म.प्र. के विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में स्नातक स्तर पर हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए एक प्रश्न पत्र मालवी का निर्धारित किया गया है। इसमें मालवी के प्रतिनिधि कवियों की रचनाएँ पढ़ाई जा रही हैं।विक्रम विश्वविद्यालय में एम.ए. (हिन्दी) के पाठ्यक्रम में मालवी साहित्य का एक प्रश्नपत्र लगाया गया है। ऐसा ही एक प्रश्न पत्र "जनपदीय भाषा मालवी के लोक साहित्य' पर चल रहा है।

विश्वविद्यालय मालवी के उन्न्यन के लिये कृत-संकल्पित है और इस दिशा में रचनात्मक सुझावों का स्वागत करेगा.


इन सारे प्रयत्नॊं के साथ ब्लाँग के रूप में मालवी जाजम के अवतरण को एक महत्वपूर्ण पहल के रूप में देखा जाना चाहिये.इंटरनेट के अभ्युदय के बाद मालवी जाजम की शुरूआत रेखांकित करने योग्य घटना है.


इन सब प्रयत्नों के बावजूद नई पीढ़ी को मालवी की ओर लाने के गंभीर प्रयत्न होने चाहिये और इसके लिये दर-असल मालवी परिवारों को ही बच्चों के साथ बतियाने में गौरव अनुभव करना होगा.बोलांगा तो बचेगी मालवी.

Tuesday 17 July 2007

याँ सेर में सब देखा देखी का चोचला हे

चतरलाल की चिट्ठी


भई कचरा जी, राम राम।अठे सब मजा में है।
अपरंच समाचार यो है कि मालवा में पाणी खूब बरस्यो
ओर दादा आनंदरावजी दुबे की कविता याद अई गई...

बस बसंत्या बरसात अई गई रे।
जीवी ने जस जाण जे जसंत्या,
जिंदगी जई री थीपण अब हाथ अई गई रे,
बस बसंत्या बरसात अई गई रे।

बेन विचारी बसंती- भई की बाट जोई री थी।
राखी की रीत सारू, पीयर को मूँडो धोई री थी।
लाख राखी को तेव्हार थो, पण बीर बेबस थो।
अरे बोदा बरस की पीर थी, यो कां को अपजस थो।
सांची, सावण सुवावणो होतो,
बसंती गीत फिर गाती।
राखी, कंदोरा और पोंची,
संग पतासा और पेड़ा मन भर लाती।
तो बसंती रंग को लुगड़ो, घागरो घेरा को पाती।
अने पेरती ससराल जई जई रे,
ने केती बस बसंत्या बरसात अई गई रे...


मन-मयूर खूब नाची रियो हे। तीज-तेवार पास अइग्या हे । कचरा भई; ई तीज-तेवार आवे तो म्हने गॉंव की खूब याद आवे। सावण में कसी रंगत रेती थी। झूला बंधता था। हाथ-पग ओर हिरदे; सब आला रेता था। यॉं सेर में तो सब देखा-देखी का चोचला है। "भई-बेन' को प्रेम भी अब टी.वी. सीरियल जैसो बनावटी हुई ग्यो हे। घर की दाल-बाटी, चूरमो, खिचड़ी-कढ़ी परोस दो तो छोरा-छोरी नाक टेड़ी करे। "पित्जा-बर्गर' में इनकी जिबान खूब लपलपाय। म्हे देखी रियो थो कि पाछला बरस जद राखी बंधी री थी तो घर का दाना-बूढ़ा-सियाणा तो छाना-माना बेठ्या था पण छोरा- छोरी असी धमाल मचई रिया था कि कई कूँ। कोई दड़ी से खेली रियो हे, कोई टी.वी. का सामे बेठ्यो हे तो कोई कम्प्यूटर में इंटरनेट में काड़ी करी रियो हे। धॉं-धूँ मची हे साब ! असो लगी रियो हे जैसे कि आप मेला-ठेला में अई ग्या हो। म्हारो मन रोई दियो थो कि इ छोरा-छोरी कॉं जाएगा। पण केवा से ने रोवा से कई वे। जो संस्कार ने तामझाम हमारा जमाना ने टाबरा-टाबरी के दिया उकी पावती तो मिलेगा साब ! जरूर मिलेगा। पेले दाना-मोटा लोग बेठा वेता तो छोरा-छोरी चूँ नीं करता था। तकलीफ जद वे कि छोरा-छोरी की धमाल देखी के उनका "मम्मी-पप्पा' दॉंत काडे ने, खुस वे। संस्कार धूल-धाणी वई रिया है ओर आप खुस वई रिया हो। जमानो आगे जावे; किने बुरो लागे ! पण अपणा घर की रिवायत नी भूलणी चइजे। टेम असो हे कि पुराना को मान करो और नया को भी स्वागत करो। याज बखत की दरकार है। कसमसाता मन से या "टपाल' भेजी रियो हूँ। कुड़ा में पाणी अई ग्यो वेगा; तलाब में खूब पाणी भरायो वेगा। ओर म्हारा नाला रोड का कई हाल हे, मजे मे है कि नी ? सावन मास,राखी,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी नजीक अई री है... भेरू बा,जड़ावचंद,बसंतीलाल,रामा तेली,झब्बालाल,माँगू तेली,बद्रीजी कसेरा,हरिरामजी डाक साब सबके म्हारो जै गोपाल बॅंचावसी।

आपको भई चतरलाल
बक़लम : संजय पटेल

Saturday 14 July 2007

कवि मोहन सोनी को गीत

दादा मोहन सोनी उज्जैन में रे हे और मालवी की सेवा करे हे.देस का म्होटा म्होटा मंच पे वणा की चुटकीली कविता/गीत पसंद कर्या जाए हे.चोमासा की बेला में यो गीत आपका मन के स्पर्श करेगा.मालवी की बढोत्तरी का वास्ते यो जरूरी हे की इमें खालिस मालवी शब्द का साथ हम दीगर बोली और भाषा को स्वागत भी कराँ.जेसो सोनीजी इण गीत का आखरी बंद में कर्यो हे..."म्हारा फ़ोटू पे हाथ धर्यो होगा" अब आप महसूस करोगा कि फ़ोटू अंग्रेज़ी को शब्द हुई के भी याँ नी खटकी रियो हे. तो आज मालवी जाजम पे आप मोहन सोनी जी की की पेली पाती.


रई रई के म्हारे हिचक्याँ अ इरी हे
लजवन्ती तू ने याद कर्यो होगा

थारे बिन मोसम निरबंसी लागे
तू हो तो सूरज उगनो त्यागे
म्हारी आँख्यां भी राती वईरी हे
तू ने उनमें परभात भरयो होगा

सुन लोकगीत का पनघट की राणी
थारे बिन सूके (सूखना) पनघट को पाणी
फिर हवा,नीर यो काँ से लईरी हे
आख्याँ से आखी रात झरयो होगा

बदली सी थारी याद जदे भी छई
बगिया की सगळी कली कली मुसकई
मेंहदी की सोरभ मन के भईरी हे
म्हारा फोटू पे हाथ धर्यो होगा.

रई रई के म्हारे हचक्याँ अईरी हे
लजवंती तू ने याद कर्यो होगा

Friday 6 July 2007

जाजम पे नवा पामणा..विवेक चौरसिया

विवेक चौरसिया नौजवान खबरची हे.दैनिक भास्कर,रतलाम में काम करे हे.वरिष्ठ मालवी कवि दादा शिव चौरसिया का बेटा हे ; पेला-पेल मालवी जाजम पे आया हे अपणी उज्जैन की मीठी मालवी लई के.बाँचो आप उणकी चार कविता.



१)



नीरी री...नीरी री

घर में आटो पीसी री

नानो खाए रोटी बाटी

सककर की तो तीन-तीन आँटी

नीरी री...नीरी री





नानो पेने (पहने) झबला धोती

हाथ में कंगन गला में मोती

नीरी री नीरी री



२)



सोना की गाडी़ पे

नानो घूमे

साथी-संगी,नाचे झूमे

नाना के माथा पे लाल टोपी

माँ बई माथो चूमे

नाना का सारू (के लिये)

नरा (बहुत से) खिलोना

साथी - संगी झूमे



३)



बरबंड छोरो गरजे गाजे

चिड़ी बई आजे,

रेलकड़ी लाजे

मै तो लगऊं नी कालो टीको

हाथ से मसले मुंडो लाजे

मै तो खिलऊ नी मीठो सीरो

सूखा रोटा खाजे



४)



वारे वारे भई,

अब कराँ कई

अँई जाय कि वँई

वारे वारे भई

अब कराँ कई



अपणी तो पतंग फ़टी गई

काँ से लाए लई

अब कराँ कई



अपणो तो दूध फ़टी गयो

केसे खावाँ मलई

वारे वारे भई

अब कराँ कई



भई विवेक की या कविता हे छोटी छोटी पण इनमें गेरा अर्थ हे.आपके अच्छी लगी वे तो आप विवेक भई से चलती-फ़िरती मसीन पे ९८२६२-४४५०० पे बात करी सको हो..उणको ईमेल भी लिखी लो: v_chaurasiya@mp.bhaskarnet.com

दादा बैरागीजी पाछा वेगा आजो


खबर पक्की हे ने खुसी की भी हे.मालवी का घणा-मानेता कवि दादा बालकवि बैरागी विश्व-हिन्दी सम्मेलन में भाग लेवा वास्त अमेरिका जई रिया हे.हिन्दी का पेला बैरागी जी पे मालवी को हक़ हे.म्हाको योज केणो हे के दादा पधारो आप राजी खुसी..और माँ भारती की धजा ऊँची करजो,और वठे कोई मालवी प्रेमी मिले तो वींके आखा मालवा को राम राम कीजो.और हाँ कोई पणियारी मिले तो वीने भी म्हाको मुजरो अरज करजो.पाछा वेगा आजो दा.साब.(खबर विनय उपाध्याय का हस्ते नईदुनिया में छपी हे)

Thursday 5 July 2007

मालवी के विस्तार के लिये

मालवी बोली सरल एवं कर्णप्रिय तो है ही, इसकी मिठास भी लाजवाब है। मालवा में शुरू से मालवी ही बोली जाती है। परंतु जैसे-जैसे अँगरेज़ी घरों में घुसपैठ करती जा रही है, वैसे-वैसे नई पीढ़ी इसे पिछड़ेपन का प्रतीक मानने लगी है। नईदुनिया ने मालवी को (थोड़ी-घणी) स्थान देकर सराहनीय कदम तो उठाया ही है, साथ ही अख़बार को लोकप्रियता भी मिली है। थोड़ी-घणी के बिना शनिवार के पृष्ठ अधूरे एवं बेमज़ा लगने लगते हैं। ऐसे ही आकाशवाणी इन्दौर ने भी वर्षों से मालवी कार्यक्रमों का प्रसारण कर इसके प्रचार-प्रसार में वृद्धि ही की है। नंदाजी-भेराजी के माध्यम से चर्चित कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहे हैं। आज भी कृषि, श्रमिक जगत कार्यक्रम एवं ग्रामलक्ष्मी कार्यक्रमों से इसे अच्छा स्थान मिल रहा है। समय-समय पर मालवी में काव्यपाठ आदि ने मालवी के प्रति आत्मीयता ही बढ़ाई है। अगर ऐसे कार्यक्रमों की वृद्धि होती रही तो नई प्रतिभाओं को उभरने का मौका तो मिलेगा ही, नई पीढ़ी में भी इसका रुझान बढ़ेगा। इसके विस्तार एवं प्रवाह में कुछ सुझाव और भी प्रभावशाली हो सकते हैं। साहित्य संस्थाओं एवं अन्य सृजनात्मक संस्थाओं द्वारा वर्ष में एक-दो बार मालवी रचनाओं की पुस्तक प्रकाशित की जा सकती है जिससे युवा पाठक एवं प्रतिभाओं में इसके प्रति फिर लगाव पैदा हो सके। नए एवं वरिष्ठ रचनाकारों के दो वर्ग बनाकर पुस्तक प्रकाशित हो सकती है तथा उनकी अच्छी रचनाओं को पुरस्कृत कर मालवी साहित्य की सेवा की जा सकती है। ज़िला एवं नगरीय स्तर पर वर्ष में एक-दो कवि सम्मेलन, जो पूर्णतः मालवी में ही हो, आयोजित किए जा सकते हैं ताकि जन-जन में मालवी बोली की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू फैल सके। अन्य बोलियों की तरह इसमें भी समाचार पत्र निकाले जा सकते हैं।
-विभा जैन "विरहन'
८५, त्रिमूर्ति नगर, धार
नईदुनिया २६ जून २००७ में प्रकाशित