Saturday 18 August 2007

सुमनजी ! वागाँ में पधारिया जाणे दुनिया में वास उड़ी


दन नागपंचमी को ने तारीख हे आज १८ अगस्त.हिन्दी कविता का घणामानेता कवि डाँ शिवमंगलसिंहजी सुमन को जनम दन.सुमनजी उज्जेण आया ने आखा मालवी मनख वई गिया. नरहरि पटेलजी की मालवी गीत की किताब सिपरा के किनारे में एक गीत सुमन जी पे हे...आज बाँचां और इण मालवी आत्मा के याद कराँ...मुजरो पेश कराँ.

सुमनजी! वागाँ में पधारया जाणे दुनिया में वास उडी़

नाम झगरपुर रोप लगायो,काची पाकी कलियाँ से लाड़ लड़ायो
सुमनजी ! पोथी में लिखाया,जाणे जिवड़ा में प्रीत जड़ी

मनख प्रेम का ओ भंडारी,मणियाँ लुटाई खोल पिटारी
सुमनजी ! बोले मीठा बोल जाणे घी में मिसरी डली

मालव धरती गेर गंभीरी, शिवमंगल की मन की नगरी
सुमनजी ! उज्जेणी में रम्या जाणे जोगीड़ा की जोग धुणी

ओ रे सुमन तू गरूवर प्यारो, देस धरम को कवि मनखारो
सुमनजी ! गुण का पारस कर दे लोवा ने सोन कडी़.


इण चिट्ठा का साते जो फ़ोटू हे वो सन १९९४ को हे जिणमें सुमनजी पटेलजी के भेराजी सम्मान दई रिया हे.
लिखी:संजय पटेल

Thursday 16 August 2007

जिने देखी नी टूटी नाव कदी ऊ पार लगाणों कईं जाणे.

नरेन्द्रसिंह तोमर मूल रूप से तो मालवी लोक गीत गायक हैं लेकिन एक सशक्त गीतकार के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान है.आज़ादी के आंदोलन में उनके गीतों ने खू़ब धूम मचाई थी..कभी उन गीतों में से कुछ रचनाएं जारी करेंगे ..आज पढि़ये उनका एक लोकप्रिय गीत जो मालवी - हिन्दी काव्य मंचों पर बहुत सराहा जाता रहा है.

जिके डुबकी लगाता नीं आवे,ऊ मोती लाणों कईं जाणे
जिने देखी नीं टूटी नाव कदी , ऊ पार लगाणों कईं जाणे


हे बायर(बाहर)ऊजळो बगळा सो, भीतर काजळ सरको काळो
कूदी कूदी ने भाषण दे, घर में पिये दारू को प्यालो
जिके अपणों नी हे खुद काँ,ऊ बाट(राह) बताणों कईं जाणे

कुर्सी का मद मे चूर हुवो,बोले तो ऐठई ने बोले
कोई साँचा रोणा रोवे तो, मकना हाथी सरको डोले
जिको दिल नी समंदर सो गेरो(गहरा) ऊ राज चलाणों कईं जाणे

सोना चाँदी की खट-पट में,जो हुइग्यो भैंसा को जाडो़ (मोटा)
फ़ूलीग्यो कोरी बादे में, खावे चूरण पीवे काढ़ो
मेहनत का पसीना में न्हायो नी, ऊ रोटी खाणों कईं जाणे

अपणा घर में तो आग लगई,अने पर घर छाणे के दौड़े
सपणा देखे गेल्या सरका, अपणा हाथे किस्मत फ़ोडे़
जिके लाय लगाणों याद फ़कत,ऊ बाग ऊगाणों कईं जाणे

जो बकतो रे 'हड़ताल करो ' 'यो पुल तोडो़ ' ' यो घर बाळो'(जलाओ)
अबे उकपे भरोसो कूण(कौन) करे जिकीं निकल्यो अकल को दीवाळो
जो फ़िरे हे उजाड्यो साँड बण्यो, ऊ खेत रखाणो कईं जाणे.

जिने देखी नी टूटी नाव कदी..ऊ पार लगाणों कईं जाणे.

नरेन्द्रसिंह तोमर

Friday 20 July 2007

विक्रम विश्वविद्यालय में मालवी के लिये रचनात्मक पहल


उज्जैन मालवा का स्पंदित नगर रहा है.महापर्व कुंभ की विराटता,शिप्रा का आसरा,भर्तहरि की भक्ति और महाकालेश्वर का वैभव इस पुरातन पुण्य नगरी को विशिष्ट बनाता है. मालवी के सिलसिले में बात करें तो पद्म-भूषण प.सूर्यनारायण व्यास के अनन्य प्रेम से ही पचास के दशक में मालवी कवि सम्मेलनों की शुरूआत उज्जैन से हुई.डाँ.शिवमंगल सिंह सुमन उज्जैन आकर क्या बसे जैसे पूरा मालवा मालामाल हो गया.विक्रम विश्वविद्यालय ने हमेशा विद्या दान के साथ मालवा और मालवी के प्रसार और विस्तार में महती भूमिका निभाई है. हाल ही में विक्रम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष और मालवीमना डाँ शैलेंद्रकुमार शर्मा ने अथक परिश्रम कर विश्वविद्यालम में मालवी के इतिहास और साहित्य पर अकादमिक कार्य के गहन गंभीर प्रयत्न किये है.मालवी जाजम के विशेष आग्रह पर डाँ . शर्मा ने विक्रम विश्वविद्यालय में किये जा रहे कार्यों का संक्षिप्त विवरण भेजा है .मालवी के विकास हेतु अकादमिक स्तर पर विक्रम विश्वविद्यालय के इस सह्र्दय पहल की मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिये.

संजय पटेल





मालवी लोक संस्कृति के संरक्षण-संवर्द्धन के लिए व्यापक प्रयासों की दरकार है। इस दिशा में हाल के दशकों में हुए प्रयासों की ओर संकेत दे रहा हूँ।



विक्रम विश्वविद्यालयों से एक साथ कई शोध दिशाओं में मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को लेकर काम हुआ है और आज भी जारी है। मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों - सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी, उमरवाड़ी आदि पर काम हुआ है। साथ ही निमाड़ी भीली और बरेली पर भी काम हुआ है और आज भी जारी है। मालवी भाषा और उसकी उपबोलियों-सोंधवाड़ी, रजवाड़ी, दशोरी, उमरवाड़ी आदि पर काम हुआ है। साथ ही निमाड़ी, भीली और बरेली पर भी काम हुआ है। जहॉं तक मालवी साहित्य की बात है आधुनिक मालवी कविता के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों यथा - आनंदराव दुबे, नरेन्द्रसिंह तोमर, मदनमोहन व्यास, नरहरि पटेल, हरीश निगम, सुल्तान मामा, बालकवि बैरागी, डॉ. शिव चौरसिया, चन्द्रशेखर दुबे आदि पर काम हो चुका है। और भी कई हस्ताक्षरों पर काम जारी है, इनमें मोहन सोनी, श्रीनिवास जोशी, जगन्नाथ विश्व, झलक निगम आदि शामिल है।



मालवी संस्कृति के विविध पक्ष यथा - व्रत, पूर्व, उत्सव के गीत, लोकदेवता साहित्य,श्रंगारिका लोक गीत, हीड़ काव्य, माच परम्परा, संझा पर्व, चित्रावण, मांडणा आदि पर कार्य हो चुका हे। मालवी की विरद बखाण, गाथा साहित्य, लोकोक्ति आदि पर भी कार्य सम्पन्न हो गया है।


हिन्दी अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय में विश्वभाषा हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केन्द्र की शुरुआत हुई है। इसमें मालवी लोक संस्कृति को लेकर विशेष कार्य चल रहा है। इस हेतु मालवी संस्कृति के समेकित रूपांकन एवं अभिलेखन की दिशा में प्रयास जारी है। यहॉं मालवी के शीर्ष रचनाकारों के परिचयात्मक विवरण, कविता एवं चित्रों की दीर्घा संजोयी जा रही है। चित्रावण, सॉंझी, मांडणा सहित मालवा क्षेत्र के कलारूपों को भी इस संग्रहालय में संजोया जाएगा। मालवी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के विविध पक्षों से सम्बद्ध साहित्य, लेख एवं सूचनाओं का दस्तावेजीकरण भी इस केन्द्र में किया जा रहा है। इस केन्द्र में निमाड़ी, भीली, बरेली, सहरिया जैसी बोलियों के अभिलेखन की दिशा में कार्य जारी है।

मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला अकादमी ने हाल के बरसों में मालवी-निमाड़ी-भीली-बरेली पर एकाग्र महत्वपूर्ण पुस्तके, मोनोग्राफ़ आदि प्रकाशित किए हैं, साथ ही "चौमासा' पत्रिका में भी महत्वपूर्ण सामग्री संजोई जा रही है।

हाल में म.प्र. के विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में स्नातक स्तर पर हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए एक प्रश्न पत्र मालवी का निर्धारित किया गया है। इसमें मालवी के प्रतिनिधि कवियों की रचनाएँ पढ़ाई जा रही हैं।विक्रम विश्वविद्यालय में एम.ए. (हिन्दी) के पाठ्यक्रम में मालवी साहित्य का एक प्रश्नपत्र लगाया गया है। ऐसा ही एक प्रश्न पत्र "जनपदीय भाषा मालवी के लोक साहित्य' पर चल रहा है।

विश्वविद्यालय मालवी के उन्न्यन के लिये कृत-संकल्पित है और इस दिशा में रचनात्मक सुझावों का स्वागत करेगा.


इन सारे प्रयत्नॊं के साथ ब्लाँग के रूप में मालवी जाजम के अवतरण को एक महत्वपूर्ण पहल के रूप में देखा जाना चाहिये.इंटरनेट के अभ्युदय के बाद मालवी जाजम की शुरूआत रेखांकित करने योग्य घटना है.


इन सब प्रयत्नों के बावजूद नई पीढ़ी को मालवी की ओर लाने के गंभीर प्रयत्न होने चाहिये और इसके लिये दर-असल मालवी परिवारों को ही बच्चों के साथ बतियाने में गौरव अनुभव करना होगा.बोलांगा तो बचेगी मालवी.

Tuesday 17 July 2007

याँ सेर में सब देखा देखी का चोचला हे

चतरलाल की चिट्ठी


भई कचरा जी, राम राम।अठे सब मजा में है।
अपरंच समाचार यो है कि मालवा में पाणी खूब बरस्यो
ओर दादा आनंदरावजी दुबे की कविता याद अई गई...

बस बसंत्या बरसात अई गई रे।
जीवी ने जस जाण जे जसंत्या,
जिंदगी जई री थीपण अब हाथ अई गई रे,
बस बसंत्या बरसात अई गई रे।

बेन विचारी बसंती- भई की बाट जोई री थी।
राखी की रीत सारू, पीयर को मूँडो धोई री थी।
लाख राखी को तेव्हार थो, पण बीर बेबस थो।
अरे बोदा बरस की पीर थी, यो कां को अपजस थो।
सांची, सावण सुवावणो होतो,
बसंती गीत फिर गाती।
राखी, कंदोरा और पोंची,
संग पतासा और पेड़ा मन भर लाती।
तो बसंती रंग को लुगड़ो, घागरो घेरा को पाती।
अने पेरती ससराल जई जई रे,
ने केती बस बसंत्या बरसात अई गई रे...


मन-मयूर खूब नाची रियो हे। तीज-तेवार पास अइग्या हे । कचरा भई; ई तीज-तेवार आवे तो म्हने गॉंव की खूब याद आवे। सावण में कसी रंगत रेती थी। झूला बंधता था। हाथ-पग ओर हिरदे; सब आला रेता था। यॉं सेर में तो सब देखा-देखी का चोचला है। "भई-बेन' को प्रेम भी अब टी.वी. सीरियल जैसो बनावटी हुई ग्यो हे। घर की दाल-बाटी, चूरमो, खिचड़ी-कढ़ी परोस दो तो छोरा-छोरी नाक टेड़ी करे। "पित्जा-बर्गर' में इनकी जिबान खूब लपलपाय। म्हे देखी रियो थो कि पाछला बरस जद राखी बंधी री थी तो घर का दाना-बूढ़ा-सियाणा तो छाना-माना बेठ्या था पण छोरा- छोरी असी धमाल मचई रिया था कि कई कूँ। कोई दड़ी से खेली रियो हे, कोई टी.वी. का सामे बेठ्यो हे तो कोई कम्प्यूटर में इंटरनेट में काड़ी करी रियो हे। धॉं-धूँ मची हे साब ! असो लगी रियो हे जैसे कि आप मेला-ठेला में अई ग्या हो। म्हारो मन रोई दियो थो कि इ छोरा-छोरी कॉं जाएगा। पण केवा से ने रोवा से कई वे। जो संस्कार ने तामझाम हमारा जमाना ने टाबरा-टाबरी के दिया उकी पावती तो मिलेगा साब ! जरूर मिलेगा। पेले दाना-मोटा लोग बेठा वेता तो छोरा-छोरी चूँ नीं करता था। तकलीफ जद वे कि छोरा-छोरी की धमाल देखी के उनका "मम्मी-पप्पा' दॉंत काडे ने, खुस वे। संस्कार धूल-धाणी वई रिया है ओर आप खुस वई रिया हो। जमानो आगे जावे; किने बुरो लागे ! पण अपणा घर की रिवायत नी भूलणी चइजे। टेम असो हे कि पुराना को मान करो और नया को भी स्वागत करो। याज बखत की दरकार है। कसमसाता मन से या "टपाल' भेजी रियो हूँ। कुड़ा में पाणी अई ग्यो वेगा; तलाब में खूब पाणी भरायो वेगा। ओर म्हारा नाला रोड का कई हाल हे, मजे मे है कि नी ? सावन मास,राखी,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी नजीक अई री है... भेरू बा,जड़ावचंद,बसंतीलाल,रामा तेली,झब्बालाल,माँगू तेली,बद्रीजी कसेरा,हरिरामजी डाक साब सबके म्हारो जै गोपाल बॅंचावसी।

आपको भई चतरलाल
बक़लम : संजय पटेल

Saturday 14 July 2007

कवि मोहन सोनी को गीत

दादा मोहन सोनी उज्जैन में रे हे और मालवी की सेवा करे हे.देस का म्होटा म्होटा मंच पे वणा की चुटकीली कविता/गीत पसंद कर्या जाए हे.चोमासा की बेला में यो गीत आपका मन के स्पर्श करेगा.मालवी की बढोत्तरी का वास्ते यो जरूरी हे की इमें खालिस मालवी शब्द का साथ हम दीगर बोली और भाषा को स्वागत भी कराँ.जेसो सोनीजी इण गीत का आखरी बंद में कर्यो हे..."म्हारा फ़ोटू पे हाथ धर्यो होगा" अब आप महसूस करोगा कि फ़ोटू अंग्रेज़ी को शब्द हुई के भी याँ नी खटकी रियो हे. तो आज मालवी जाजम पे आप मोहन सोनी जी की की पेली पाती.


रई रई के म्हारे हिचक्याँ अ इरी हे
लजवन्ती तू ने याद कर्यो होगा

थारे बिन मोसम निरबंसी लागे
तू हो तो सूरज उगनो त्यागे
म्हारी आँख्यां भी राती वईरी हे
तू ने उनमें परभात भरयो होगा

सुन लोकगीत का पनघट की राणी
थारे बिन सूके (सूखना) पनघट को पाणी
फिर हवा,नीर यो काँ से लईरी हे
आख्याँ से आखी रात झरयो होगा

बदली सी थारी याद जदे भी छई
बगिया की सगळी कली कली मुसकई
मेंहदी की सोरभ मन के भईरी हे
म्हारा फोटू पे हाथ धर्यो होगा.

रई रई के म्हारे हचक्याँ अईरी हे
लजवंती तू ने याद कर्यो होगा

Friday 6 July 2007

जाजम पे नवा पामणा..विवेक चौरसिया

विवेक चौरसिया नौजवान खबरची हे.दैनिक भास्कर,रतलाम में काम करे हे.वरिष्ठ मालवी कवि दादा शिव चौरसिया का बेटा हे ; पेला-पेल मालवी जाजम पे आया हे अपणी उज्जैन की मीठी मालवी लई के.बाँचो आप उणकी चार कविता.



१)



नीरी री...नीरी री

घर में आटो पीसी री

नानो खाए रोटी बाटी

सककर की तो तीन-तीन आँटी

नीरी री...नीरी री





नानो पेने (पहने) झबला धोती

हाथ में कंगन गला में मोती

नीरी री नीरी री



२)



सोना की गाडी़ पे

नानो घूमे

साथी-संगी,नाचे झूमे

नाना के माथा पे लाल टोपी

माँ बई माथो चूमे

नाना का सारू (के लिये)

नरा (बहुत से) खिलोना

साथी - संगी झूमे



३)



बरबंड छोरो गरजे गाजे

चिड़ी बई आजे,

रेलकड़ी लाजे

मै तो लगऊं नी कालो टीको

हाथ से मसले मुंडो लाजे

मै तो खिलऊ नी मीठो सीरो

सूखा रोटा खाजे



४)



वारे वारे भई,

अब कराँ कई

अँई जाय कि वँई

वारे वारे भई

अब कराँ कई



अपणी तो पतंग फ़टी गई

काँ से लाए लई

अब कराँ कई



अपणो तो दूध फ़टी गयो

केसे खावाँ मलई

वारे वारे भई

अब कराँ कई



भई विवेक की या कविता हे छोटी छोटी पण इनमें गेरा अर्थ हे.आपके अच्छी लगी वे तो आप विवेक भई से चलती-फ़िरती मसीन पे ९८२६२-४४५०० पे बात करी सको हो..उणको ईमेल भी लिखी लो: v_chaurasiya@mp.bhaskarnet.com

दादा बैरागीजी पाछा वेगा आजो


खबर पक्की हे ने खुसी की भी हे.मालवी का घणा-मानेता कवि दादा बालकवि बैरागी विश्व-हिन्दी सम्मेलन में भाग लेवा वास्त अमेरिका जई रिया हे.हिन्दी का पेला बैरागी जी पे मालवी को हक़ हे.म्हाको योज केणो हे के दादा पधारो आप राजी खुसी..और माँ भारती की धजा ऊँची करजो,और वठे कोई मालवी प्रेमी मिले तो वींके आखा मालवा को राम राम कीजो.और हाँ कोई पणियारी मिले तो वीने भी म्हाको मुजरो अरज करजो.पाछा वेगा आजो दा.साब.(खबर विनय उपाध्याय का हस्ते नईदुनिया में छपी हे)

Thursday 5 July 2007

मालवी के विस्तार के लिये

मालवी बोली सरल एवं कर्णप्रिय तो है ही, इसकी मिठास भी लाजवाब है। मालवा में शुरू से मालवी ही बोली जाती है। परंतु जैसे-जैसे अँगरेज़ी घरों में घुसपैठ करती जा रही है, वैसे-वैसे नई पीढ़ी इसे पिछड़ेपन का प्रतीक मानने लगी है। नईदुनिया ने मालवी को (थोड़ी-घणी) स्थान देकर सराहनीय कदम तो उठाया ही है, साथ ही अख़बार को लोकप्रियता भी मिली है। थोड़ी-घणी के बिना शनिवार के पृष्ठ अधूरे एवं बेमज़ा लगने लगते हैं। ऐसे ही आकाशवाणी इन्दौर ने भी वर्षों से मालवी कार्यक्रमों का प्रसारण कर इसके प्रचार-प्रसार में वृद्धि ही की है। नंदाजी-भेराजी के माध्यम से चर्चित कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहे हैं। आज भी कृषि, श्रमिक जगत कार्यक्रम एवं ग्रामलक्ष्मी कार्यक्रमों से इसे अच्छा स्थान मिल रहा है। समय-समय पर मालवी में काव्यपाठ आदि ने मालवी के प्रति आत्मीयता ही बढ़ाई है। अगर ऐसे कार्यक्रमों की वृद्धि होती रही तो नई प्रतिभाओं को उभरने का मौका तो मिलेगा ही, नई पीढ़ी में भी इसका रुझान बढ़ेगा। इसके विस्तार एवं प्रवाह में कुछ सुझाव और भी प्रभावशाली हो सकते हैं। साहित्य संस्थाओं एवं अन्य सृजनात्मक संस्थाओं द्वारा वर्ष में एक-दो बार मालवी रचनाओं की पुस्तक प्रकाशित की जा सकती है जिससे युवा पाठक एवं प्रतिभाओं में इसके प्रति फिर लगाव पैदा हो सके। नए एवं वरिष्ठ रचनाकारों के दो वर्ग बनाकर पुस्तक प्रकाशित हो सकती है तथा उनकी अच्छी रचनाओं को पुरस्कृत कर मालवी साहित्य की सेवा की जा सकती है। ज़िला एवं नगरीय स्तर पर वर्ष में एक-दो कवि सम्मेलन, जो पूर्णतः मालवी में ही हो, आयोजित किए जा सकते हैं ताकि जन-जन में मालवी बोली की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू फैल सके। अन्य बोलियों की तरह इसमें भी समाचार पत्र निकाले जा सकते हैं।
-विभा जैन "विरहन'
८५, त्रिमूर्ति नगर, धार
नईदुनिया २६ जून २००७ में प्रकाशित

Friday 22 June 2007

चार लाईन में रिस्ता की बात

मालवी जाजम पे आज मालवी में लिखी कविता पेश हे.रिश्ता की गंध अपणी बोली ज्यादा मीठी वई जाए हे.
म्हारो यो भी प्रयास हे कि इण चिट्ठा पे गीत,कविता,गजल,हाईकू,दोहा,मुक्तक सबका सब नमूदार वे.म्हारो यो भी केणो हे कि बोली को मानकीकरण मुश्किल काम हे. बोली को आँचल खूब बडो़ हे ने वीमे जतरी बी दीगर बोली-भाषा आवे ...बोली के बरकत वदे(बढे़)हे.तो आज आप बांचो म्हारी चार लाईन की चार कविता इणमें रिस्ता का नरा (बहुत से) रंग आपके मिलेगा.


माँ

आज भी थपके हे म्हारी नींदा ने थारी लोरी
म्हने याद हे ममता की थारी झीणी झोरी
फाटा पल्ला में ढाँकी ने अपणी भूख तरस
माँ कस्तर उछेरया वेगा थें चाँद-सूरज

टीप:
झीणी:पतली
कस्तर:किस तरह
उछेरया:बडे़ किये होंगे

ममता:

म्हारा हिरदां में लाग्यो दूध थारो सिंदूरी
पेली बरखा की जाणे वास वसी कस्तूरी
तू तो देतीज रिजे माँ म्हारी जामण-गंगा
म्हारा माथा पे थारी ममता को ठंडो छांटो

टीप:
वास:गंध
वसी:वैसी
देतीज:देते ही रहना


दादी

सुमरणी हाथ में,आँख्यां में भरया सोरमघट
चुगाती चरकला दादी दया की भण्डारण
अबोली बावडी़ उंडी,वरद की पोटली जूनी
खुणा में सादडी़ सुखी पडी हे आपणीं दादी

टीप:
सुमरणी:राम नाम की माला
चुगाती चरकला:चिड़ियों को दाना खिलाते
उंडी:गहरी
खुणा:कोने में
सादड़ी:चटाई


हीरा-मोती


घेर गुम्मेर कसी छाँव हे अपणा घर की
पूजा हे देवता हे या बड़ा मंदर की
अणमोल्या रतन झडे़ कसा ई दादी का
दूधो न्हावो पूतो फ़लो म्हारा वाला

टीप:
घेर-गुम्मेर:गहरा-घना

Wednesday 20 June 2007

मालवी लोक-नाट्य....माच..गणपति गजल

मालवी जाजम पे आज पधारिया हे मालवी माच का मान...दादा सिध्देश्वरजी सेन.भोला,सरल ओर प्रतिभा का धनी सेनजी नया जमाना का माच का पुरोधा.गाँव-गाँव, गली-गली जईके सेनजी ने मालवी माच मो मान बढायो.जिन्दगी भर अभाव में रिया पर माच को दामन नीं छोड्यो.आकाशवाणी,सूचना विभाग ने (और)पंचायत का तेडा़ (निमंत्रण) पे सेन जी आखा(पूरे) मालवा,निमाड़,राजस्थान,गुजरात में घूम्या और माच को रंग जमायो.माच बडी़ लाजवाब विधा हे.ईंके आप संगीत और नाटक को सामेलो (मेल) कई सको हो.ढो़ल और हारमोनियम पे बारता ( कहाने) केता-केता एक रूपक साकार हुई जाए.कला का पेला देव गणपति जी म्हाराज गजल गई के माच की सुरूआत वे हे.सिध्देश्वर जी सेन उज्जैन में रेता था. जद तक वी रिया ..माच को काम और नाम खूब बढ़यो.सेनजी ने माच की सेवा वेसे ज की जस तर हबीब तनवीर साब ये छत्तीसगढ़ का नाचा की की हे.सिध्देश्वर जी के संगीत नाटक अकादमी को मोटो (प्रतिष्ठित)मान बी (भी) मिल्यो.लोग के कि ग़ज़ल उर्दू में ज (ही) लिखी जाए..पण आपके अचरज वेगा की माच में बी गजल (मालवी में गजल लिखनो अच्छो लगे हे..ईंका से ग़ज़ल नीं लिखी रियो हूं).माच का बारा में आपके आगे बी ओर जानकारी दांगा (देंगे) . आपके या बतई के भोत खुसी वई री हे कि दादा सेनजी का बेटा प्रेमकुमार सेन भी माच ओर मालवी लोक संगीत की सेवा में लग्या हे..उज्जैन में रे हे (रहते हैं)प्रेम भई को कानगुवालिया गीत के खूब पंसद कियो जाए हे..उमें लिख्या हुआ दोहा में नरी (बहुत सी) गम्मत ओर ठिठोली वे हे ओर सबक़ बी .ढोलक ओर खड़्ताल बजात कानगुवालिया
ढांढा-ढोर( मवेशी) की चरवई का वास्ते राजस्थान से मालवा में आवे ने के(कहते हैं)...

आलखी की पालकी...जय कन्हैया लाल की
गोवर्धन गोपाल की ..श्री नन्द्लाल की
धीरे आन दे री जरा धीरे आन दे
धीरे आन दे री जरा धीरे आन दे

पन्नालाल जी पापड़ बेले
धनालाल जी धनियो
बद्रीलाल जी बाटो (मविशियों का आहार) बेचे
घ्रर में पड्ग्यो घाटो

बजार(बाज़ार) का माय(बीच)म्हारो छोरो अडी़ गयो
जलेबी देखी के यो तो आडो़ पडी़ गयो
कानगुवालिया की खासियत या हे कि आप सम-सामयिक प्रसंग पे बी दोहा कई सको हे ..एक उदाहरण देखो..

राष्ट्रपति का पद पे देखो परमिला जीजी आई
सोनियाजी का गीत पे केसी बंसी हे बजाई

ईन कुर्सी पे आज तलक तो आदमी हे बेठ्या
पेली बार बिराजेगा ईण पर देस की लुगाई

तो जींकी अपण हिन्दी में स्फ़ूर्त विचार कां हां वा बात कानगुवालिया में रेती थी.

तो या तो थी कानगुवालिया की बात..आपके यो बी बतई दां कि सेनजी की बेटी कृष्णा वर्मा देस की जाना-मानी कलाकार हे और मालवा का मांडणा बणावा में कृष्णा जी एक म्होटो नाम हे.उनके बी नरा(बहुत से) इनाम मिल्या हे.
अपण बात सुरू करी थी दादा सिध्देश्वर जी सेन से. तो उनके आज मालवी जाजम की श्रध्दांजली देता हुआ अपण मालवी माच मे गणपति वंदना की एक गजल बांची लां हां.

गजानन्द गणराज आज, म्हारी अरज सुणी ने आजो
रिध्दि-सिध्दि दोई पटराणी, के सांते(साथ)तम लाजो

मूसक ऊपर करो सवारी,दरसन बेग(जल्दी) दिखाओ
कंचन थाल धरां मुख आगे,मोदक भोग लगाजो

साय करो मंडली का ऊपर,बिगड़ी बात बणाजो
बीगन(विघ्न)हरो आनन्द करो,हिरदां(ह्रदय)में आय बिराजो


पेलां(पहले) पूजा करां आपकी,अइने(आकर) रंग जमाओ
सिध्देश्वर हे सरन-चरन में गणपति लाज बचाओ.

देख्यो आपने कित्तो सरल खयाल हे आदिदेव गणपति के मनावा को.अब तो दादा सिध्देश्वर जी रामजी का यां जई बस्या हे
पण मालवी माच की बिछात पे उनको नाम आज बी सरदा(श्रध्दा) का साते लियो जई रियो हे.मालवी जाजम पे आज माच का रंग की सुरूआत हे ..गजानन जी पधारी गया हे..देखो आगे आगे कई वे हे...तो फ़ेरे मिलां..राम..राम.

Friday 15 June 2007

मालवी का प्रथम कवि दादा दुबेजी जाजम पे

मालवी कविता का दादा बा आनन्दरावजी दुबे की मुहावरादार मालवी को कई केणो ?
पचास का दशक में शिप्रा का घाट पे पेलो कवि-सम्मेलन व्यो थो तब मालवी को कोई एसो आयोजन नीं व्यो जीमे
आनन्दराव दादा की धारदार मालवी को रंग नीं बिखरयो ।रामाजी रई ग्या ने रेल जाती री दादा की अमर रचना हे।अणी मालवी जाजम पे दादा की वा हस्ताक्षर रचना जल्दी ज बांचोगा आप।दुबेजी की कविता जाणें जुवार बाजरा की फ़सल की तरे धरती से उपजी।दादा दुबेजी सन १९९६ में हमारा बीच से चल्या ग्या।उनकी मीठी मालवी की चमक आज भी बरकरार हे,,,,,,एक बानगी देखो आप

सुण बेटा, म्हारे याद अ इ ग्यो एक केवाड़ो
घर बांदो तो राखजो बाडो़
खेती करो तो लीजो गाड़ो
बेटा, जीका घर मे नीं हे बूढो़-आडो़
उना घर को पूरो हे फ़जीतवाडो़
बात छोटी सी हे पण कितरी तीखी और चोखी हे ।


आज दादा दुबेजी के याद करता अपण उनकी चर्चित रचना वांचां।


छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

जाजम पर एक साथ बठी ने
तन नी देख्या मन परख्या हे
इनी परख में कोई रूठ्या ने , कोई हरख्या हे
घडी़-घडी़ का हेल - मेल से
पास-पडोसी मनख मनख की
छिपी जात हूं खोलीरयो हूं
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

कुण अईरयो यो तण्या हुवो रे
बीस किताब यो भण्यो हुवो रे
देखो अपणी अक्कल से यो
सांच-झूठ से खरी खोट से
हांसी ने यो फ़ांसीरयो हे
सुन्ना से यौ तुली गयो
चांदी का पलडें यो मोटो हे
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

सांची सांची खरी पोबात यो नी खोटो हे
कुण गरीब ने कुण अमीर हे
यो फ़सड्डी ऊ मीर हे
खूब बणायो थर्मामीटर
पूंजी को पारो सरके हे
कोण किखे कितरो बुखार हे
प्रीत प्यार सभी निगाह से
देखी परखी तोलीरयो हूं
छोटा मूंडे बड़ी बात हूं बोलीरयो हूं

एक दुबलो ने एक तगडो़ हे
देखो-देखो यो झगडो़ हे
कि डालर सब खे डांटीरयो हे
धीरज कोई खे बांटीरयो हे
घाव पुराणा धूजीरयो हे
लोवा साँते रूई बळे हे
वले चाक पण धुरी गळेबड हे
धीर गंभीरो तरूवर पीपल
छिपई गोयरा साथ बळे हे
दुनिया जाय उजाला में
मुश्यालची ठोकर मत खई जाजो
जाणो लंबी दूर चलनो हे दिन रात
रात कँईं याँ मत रई जाजो
बडी़ बात पर छोटो मूंडो
सुख साठे दुःख मोलीरयो हूं
छोटा मुंडे बडी़ बात हूं बोलीरयो हूं

टीपः
सुन्नाःस्वर्ण
डाटीरयोःडांट रहा है
लोवाः लोहा
छिपइःछिपकली
डालरःअमेरिकी मुद्रा

Monday 11 June 2007

मानसून के पहले ..ये मनभावन मेवला गीत


मालवा पर प्रकृति की सदा मेहर रही है.कुदरत की सौजन्यता से ही मालवा 'पग पग रोटी,डग डग नीर' से सम्पन्न बना है.,मालवा के लोक-गायकों ने सदैव से अलमस्त प्रकृति से स्वार्थ की जगह जन-मन के शुभ-भावों को उजागर करने का आग्रह किया है.मालवा मे चौमासे को बड़ा आदर दिया गया है.समीसांझ के मेवला को आदरणीय पावणा (मेहमान) माना गया है और उसे मालव की सुहानी रात में विश्राम का खुला न्योता प्राप्त हुआ है.अब मनभावन मालवा मनुष्य की बेपरवाही से बंजर होने की कगार पर है. पग-पग रोटी देने वाला मालवा अब कहीं अतीत में खोता जा रहा है. कुंओं से उलीचता जल अब आंखों का नीर बन कर झरने को मजबूर है.भावनाओं के स्तर पर हमने जिस तरह से अपने जन-पदीय परिवेश को दांव पर लगाया है ; प्रकृति भी उससे अछूती नहीं है. समय रह्ते हमें मन में झांकने की ज़रूरत है कि कहां गया हमारा वो प्यारा मालवा जिस पर मेघ केवल मंडराते नहीं थे; झमाझम झूमते हुए बरसते भी थे.मेवला गीतों यानी वर्षा गीतों मे लोक कवियों ने उज्जैन की महारानी और राजा भर्तहरी की रानी पिंगला के विरह की तरफ़दारी कर अनगिन भाव संवेदनाएं गाईं हैं.मालवी लोकगीतों की पावन आकांक्षाओं से प्रेरित मेरा ये मेवला गीत बानगी के बतौर पेश कर रहा हूं.उम्मीद है आपका मन भी भिगेगा इन पंक्तियों को पढते हुए:





बरस बरस मेवला, तन में तरस जागी रे


मन मे अगन लागी रे


मेवला बरस बरस





हिवड़ा की धूणीं में, लपटां की सांसा


चातक का कंठ तक , आई अटकी आसा


धरती है तरसी ने बैल उदासा


सरवर पे,पनघट पे, पंछीड़ा प्यासा


चमक दमक मेवला, मन मे तरस जागी रे


तन में अगन लागी रे


मेवला बरस बरस





भोला कावडियाजी, सोरम घट ला रे


कवि कालिदास से,पात्यां भिजा रे


विन्ध्या के कांधा पे बैठी ने आ रे


मालव की रातां मे पमणई में आ रे


हरख-हरख मेवला , मन में तरस लागी रे


तन में अगन जागी रे


मेवला बरस बरस

दादा तोमरजी का हाथ से..ठूंठ का ठाठ


नरेन्द्रसिंह तोमर मालवी का लाड़का लोक-गीत गायक हे.वणाको नाम आयो नी के आपका मन में गजानंद भगवान को ऊ लोक-गीत याद अई जावे हे जींके आपने विविध-भारती ओर मालवा हाऊस से खूब सुण्यो हे...गवरी रा नंद गनेस ने मनावां..दादा तोमर जी अबे अस्सी पार का हे ओर रामजी की किरपा से स्वस्थ हे ने परदादा वई ग्या हे.दादा देस की आजादी का आंदोलन में भी खूब काम कर्यो.पेला आजादी का वास्ते गीत गाता था,पछे मीरा,सिंगाजी,गोरख,कबीर का लोकगीत गावा लग्या.खूब प्रेम मिल्यो मालवी लोगां को.अबे इकतारा का साथे एक नयो काम दादा ने ली ल्यो हे.दादा को दूसरो रूप एक खालिस किसान को भी हे.तो खेत मे एक दानो(वृध्द) दरख्त काट्यो.नरी(बहुत सी) शाखा,जडा़ निकली ने वणाक अलग अलग रूप इण रूखडा़ और ठूंठ मे देखाया.ईंका पेला एक बार कला गुरू श्री विष्णु चिंचालकर भी दादा तोमर जी का खेत पे ग्या था ने कियो थो कि तोमर तम इण रूखड़ा होण और ठूंठ में ध्यान से देखो केसा केसा सुंदर रूप बणे हे..चरकली बणे हे,घोडो़ बणे हे और तो और डायनोसोर भी बणे हे..तो दादा तोमर जी के बात जंची गी साब..दाद भिड़ ग्या काम में . आप विश्वास नीं करोगा कि दादा तोमर जी का हाथ से दो सो से जादा कला-कृतियां तैयार वई गी हे.दादा का हाथ से इण ठूंठ को ठाठ देखणे जेसो हे....दादा को काम देखवा वास्ते इन्दौर से बीस कोस दूर कम्पेल गांव
का पेला पिवड़ाय आवे हे .आप वठे जई के दादा का खेत पे यो दुर्लभ काम देखी सको हो.दादा तोमर जी को जुनून ने जिद रंग लई री हे ....मालवी जाजम का इण चिट्ठा पे दादा तोमर जी का काम को स्लाइड शो आप देखी सको हो.

भाटो फ़ेकीं ने माथो मांड्यो..

मालवी का यशस्वी हास्य कवि श्री टीकमचंदजी भावसार बा अपणीं रंगत का बेजोड़ कवि था.घर -आंगण का केवाड़ा वणाकी कविता में दूध में सकर जेसा घुली जाता था.मालवी जाजम में या बा की पेली चिट्ठी हे....खूब दांत काड़ो आप सब.आगे बा की नरी(अनेक) रचना याद करांगा.

कविता को सीर्सक हे..
भाटो फ़ेकी ने माथो मांड्यो...

लकड़ी का पिंजरा में चिड़ियां बिठई
चोराय पे जोतिसी ने दुकान लगई
भीड़ भाड़ देखी ने एक डोकरी रूकी
लिफ़ाफ़ो उठायो तो चिट्ठी दिखी

साठ बरस की डोकरी ने बिगर भणीं
बंचावे भी कीसे भीड़ भी घणीं
अतरा में एक छोरो बोल्यो ला मां... हूं वांची दूंगा
जेसो लिख्यो वेगा वेसो कूंगा


लिख्यो थो...
प्रश्न पूछ्ने वाले तुम्हारी अल्हड़ता और सुंदरता पे
आदमी मगन हो जाएगा
और आते महीने तुम्हारा लगन हो जाएगा.

Sunday 10 June 2007

म्हारो हस्ताक्षर गीत...दादी थारी चरखो चाले

चरर मरर ,चरर मरर,चरखो चाले....दादी थारो चरखो चाले......अणी गीत से आखा देस मे म्हने पेचाण मिली.घर-आंगण का मीठा रिस्ता को गीत हे यो.अपणा घर-घर में इ रिस्ता त्याग,संघर्ष ओर प्रेम की पावन डोर वे हे.ईंमे भी घट्टी की चरर - मरर हे और हे परिवार की मंगल कामना का कल्याणी सुर. तीन केन्दीय पात्र हे ..दादी,भाभी,मां.
आओ बांचो...


चरर मरर , चरर मरर, चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले..

खेत में वायो ऊजरो,ऊजरो कपास रे भई
हांक्यो जोत्यो मोखरो , मोखरो कपास रे भई
आछो आछो कातल्यो दादी ये कपास रे भई
दादा थारी खादी को अंगरखो सुवाय रे भई
चरर मरर , चरर मरर चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले.

कारी कारी गाय को धोरो,धोरो दूध रे भई
भरया, भरया माटला , तायो तायो दूध रे भई
मचमचाती माटली छ्पछ्पाती छाछ रे भई
कसमसाती कांचली , चमचमाती खांच रे भई
घमड़ घमड़ घमड़ -घमड़ जावण वाजे
भाभी थारो बेरको हाले


मीठा मीठा बोल पे गीत जाग्या जाय रे भई
म्हारी प्यारी मायड़ी कूकड़ा बोलाय रे भई
जागो सूरज देवता म्हारी मां जगाय रे भई
सोना केरी जिन्दगी चमचमाती आय रे भई
घुमर घुमर घुमर-घुमर घट्टी चाले
मैया थारी घट्टी चाले

दादी थारी छाया में जनम बीत्यो जाय रे भई
भाभी थारो चूड़्लो चमचमातो जाय रे भई
म्हारे आंगण कोई भी नजर नीं लगाय रे भई
मैय्या थारी गोद में सबे सुख समाय से भई
ढमक ढमक, ढमक-ढमक नोबत बाजे

म्हारे घर नोबत वाजे
मैय्या थारी घट्टी चाले
भाभी थारो बेरको हाले
दादी थारो चरखो चाले
दादी थारो चरखो चाले.

टीप>
ऊजरो : उज्ज्वल
बेरको : हाथ में बांधे जाने वाले
बाजूबंद की लटें
मायडी़ : मां
नोबत : एक वाद्य.

कसी लुगायां हे...

सीधी सादी,कसी लुगायां हे
भोली भाली,कसी लुगायां हे

जनम की मां,करम की अन्नपूर्णा
भूखी तरसी, कसी लुगायां हे

पन्ना,तारा,जसोदा मां, कुन्ती
माय माड़ी, सकी लुगायां हे

कुंआरी बिलखे हे,परणी कलपे
घर से भागी,कसी लुगायां हे

गूंगी-गेली,वखत की मारी हे
खूंटे बांधी, कसी लुगायां हे

फ़ांसी-फ़न्दो,तेल ने तंदूर
लाय लागी,कसी लुगायां हे

टीप:

लुगायां:औरतें
माड़ी:मां
परणी:ब्याहता
लाय: आग

म्हारो पेलो चिट्ठो...छोटी छोटी मच्छी कितरो पाणीं

यो एक ध्वनि गीत है.१९६० का पेलां लिख्यो थो. मंच म्हें खूब गायो..नाना-म्होटा सुणवा वाळा के खूब पसंद आयो और आकाशवाणी इन्दौर जींके हम मालवा हाउस का नाम से पेचाणां हां वठे से नरा दन तक वजतो रियो.यो एक पहेली गीत है.जीमे बचपन हे,जवानी हे और हे बुढा़पो.छोटी,थोडी़ सी बड़ी और सबसे बड़ी मछली का मारफ़त या एक पड़्ताल हे कि जीवन का सागर में कितरो पाणी हे..मतलब केवाको यो कि कितरी चुनोतियां हे. आओ आप भी गावो म्हारा साथ.

छोटी छोटी मच्छी कितरो पाणी...कितरो पाणी.
म्हें नी बतावां लावो गुड़धानी,लावो गुडधानी
लो गुड़धानी.

बचपन>
यो सरवर तीर किनारो हे
बस घुटना घुतना गारो हे
भई पाणी की बलिहारी जी
झलमल हे प्यारो प्यारो हे
लो आओ बतावां इतरो पाणी..इतरो पाणी.

ब ब ब ब हप्प....
घूघर मार धमीर को

जवानी>
या नदिया लेर लेरावे हे
कोई डूबे कोई तिर जावे हे
कोई भाटा डूबी जाए
लो आओ बतावां इतरो पाणी...इतरो पाणी.

ब ब ब ब हप्प...
घूघर मार धमीर को

बुढा़पा>
यो सागर गेरो गेरो जी
हाथी घोडा़ सब डूबे जी
सो पुरुस डुबे,सो बांस डुबे
सो झाड़ डुबे,सो पाड़ डुबे

लो आओ बतावां इतरो पाणी...इतरो पाणी.
ब ब ब ब हप्प,घूघर मार धमीर को

टीप:
पाड़:पहाड़

ब ब ब ब ह्प्प
घूघर मार धमीर को: या एक तरह की ध्वनि हे.गीत में साउण्ड इफ़ेक्ट लावा का वास्ते इंके इस्तेमाल कर्यो हे.

म्हारे पूरी उम्मीद हे कि यो पेलो पानड़ो आपके पसंद आएगा.मालवी के आगे बढा़वा का वास्ते आप भी कोशिश करो.इन चिट्ठा पे आप भी अपणी टपाल (चिट्ठी) भेजो ओर मालवी के पुर्न-जीवित करणे को पुण्य कमाओ..ध्यान रखवा की बात या हे कि अपणी बोली अपणी मां हे..ईंको सुहाग अमर रेवे एसी कामना करां. जै राम जी की.